मेरा दिल चाहता है कि वीराना कह दूँ,
मैं इस एक पल को कैसे ज़माना कह दूँ,
सब लोग हँसते हैं पर दिल नही हँसता,
इस जमघट को कैसे दोस्ताना कह्दूं।
माना की तूने मुझे दिया है बहुत कुछ,
पर तू ही बता कैसे खैरात को नजराना कह दूँ।
जानता हूँ के कई लोग ख़ुद को शम्मा कहते हैं,
मेरा जिगर नही की मैं ख़ुद को परवाना कह दूँ।
तू चाहे की मेरे घर को मैं ताजमहल कहूँ,
मैं तो फकीर हूँ तू बता कैसे अमीराना कह दूँ।
मैं तो घर को घर ही कहता रहूँगा सदा,
मुमकिन नही बेकस कि शराबखाना कह दूँ।
Saturday, August 2, 2008
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2 comments:
कैसे खैरात को नजराना कह दूँ।
कुछ ज्ञान इधर भी दीजिये बंधू बहुत ही प्यारी रचना शुभकामनाये
Kya ye aapki khud ki creation hai.
No, I am not doubting it, Just asking because somebody claimed it to be his...
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