यूँ ज़हर उड़ाना ठीक नहीं, यूँ खून बहाना ठीक नहीं,
घर आंगन में यूँ मज़हब की दीवार उठाना ठीक नहीं,
ऐ खुदा मुझे बतला दे के मैं तुझको कहाँ तलाश करुँ,
इसकी मस्जिद साफ़ नहीं उसका बुतखाना ठीक नहीं।
यहाँ मौत के फतवे रहते हैं वहाँ धर्म के चाकू चलते हैं,
घर में ही छुप कर रहना बाहर का ज़माना ठीक नहीं।
जाकर फूंको उन महलों को हैवान जहाँ पर रहते हैं,
ये घर मुफलिस इंसानों का इसको तो जलाना ठीक नहीं।
वो मौत के सौदागर हैं सब ये खौफ के सब व्यापारी हैं,
पंडितजी भी पाक नहीं और खान-ऐ-खाना ठीक नहीं।
तुझको भी हो जो नाज़ तो सुन ले सच साकी इस महफिल का,
नफरत की मदिरा बिकती है तेरा मयखाना ठीक नहीं।
उनको भी इल्म है ज़रा ज़रा, लेकिन वो भी समझाते हैं,
ये बातें सच्ची हैं बेकस पर जुबां पे लाना ठीक नहीं।
Sunday, August 24, 2008
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2 comments:
kavita निश्चित ही सराहनीय है.
कभी समय मिले तो हमारे भी दिन-रात आकर देख लें:
http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/
http://hamzabaan.blogspot.com/
http://saajha-sarokaar.blogspot.com/
bhai kahaan ho.
bhai kya hua,kuch to bolo.
bhai bhai bhai
bhai bhai bhai
bhai bhai
bhai
उनको भी इल्म है ज़रा ज़रा, लेकिन वो भी समझाते हैं,
ये बातें सच्ची हैं बेकस पर जुबां पे लाना ठीक नहीं। bahut achhi rachana...badhai
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