Wednesday, July 30, 2008

घटा कुछ अलग है बरसात कोई और,
ऐ इश्क तेरे दिखते हैं हालात कोई और.

तू किसी और की परवाह करे है,
जले है तेरी याद में दिन रात कोई और.

पूछे है मेरी तबीअत आ आ के हवाएं,
लगती है मुझे ये तेरी करामात कोई और.

मैंने चाहा था कि अकेले में मिलूँगा,
बसा था तेरी रूह मैं उस रात कोई और.

पूछना तो उनसे सबब बेदिली का था,
आ गए लबों पे सवालात कोई और.

इस बार वफाओं का हिसाब मांगूंगा,
बेकस उनसे हुई जो मुलाक़ात कोई और.
शीशे के घर में पत्थर की बात करता था,
अजीब शख्श था कहर की बात करता था।

थका हुआ था दौर-ऐ-अंजुमन से तो,
अक्सर वो अपने सफ़र की बात करता था।

रातों में उठता था दीवानों की तरह और,
कभी शाम कभी सहर की बात करता था।

देखा करता था अपने हाथों की लकीरें,
अपने उजडे हुए मुकद्दर कि बात करता था।

किसकी बात किया करता था BEKAS,
वो एक बीमार सुखनवर की बात करता था।
कभी कभी इस दिल की कुछ ऐसी भी हालत रहती है,
एक कदम चलने की फिर रुकने की हिदायत रहती है।

तू इस तरहा रोका ना कर मैखाने जाने वालों को,
कि कुछ लोगों को मै की नही साकी की आदत रहती है।

नंगे पांव चले कब तक कोई रेत की जलती चादर पर,
तपती दुपहरी में हम को अब रात की चाहत रहती है।

जिस दिन उनका ये कहना कि शाम को पनघट पर मिलना,
खुदा कसम उस दिन की तो हर बात क़यामत रहती है।

लगता है किसी दिन अब मेरे घर पर भी पत्थर बरसेंगे,,
उनकी खातिर अब अपनी दुनिया से अदावत रहती है।

चुपके चुपके पीते हैं अहल-ऐ-रकीबां से बचके,
अपनी भी हिफाज़त रहती है उनकी भी इजाज़त रहती है।

BEKAS के घर का होता है ये आम नज़ारा ऐ लोगों,
हर रोज़ जनाजा उठता है हर शाम को मय्यत रहती है.

Tuesday, July 29, 2008

जल्लाद के नगमे होते हैं शैय्याद की बातें होती हैं,
अब खिलवत में खामोशी से उफ्ताद की बातें होती हैं.

अब बाद-ऐ-शबाके शोलों में हिम्मत का मुशैदा होता है,
सितमगरों से अब अक्सर फरियाद की बातें होती हैं..

वो निकली वाइज़ के घर से और पंडित के घर चली गई,
हम बादा कशों की महफिल में जेहाद की बातें होती हैं.


बज्म में आके बशीर मिला खबरें दी फकत हशीशीं की,
इस सर पे खुदा और होठो पे, इल्हाद की बातें होती हैं,

उल्फत की रस्मो ने किया है घर को वीरां इस तरहा के,
अब नुक्तादानों में शहर-ऐ-नाशाद की बातें होती हैं.

उकताकर दुनियादारी से कहदी जो मुख्तसर लफ्जों में,
अब तक लोगों में मेरी उस रूदाद की बातें होती हैं.

इस्लाम की बातें करते हैं न कुफ्र के किस्से गाते हैं,
बेकस खौफज़दा दिल में, बुनियाद की बातें होती हैं.

Monday, July 28, 2008

घन घोर घटाओं की तरहा गैरों के घर बरसे तो क्या,
तेरी बला से हम बरसों प्यासे प्यासे तरसे तो क्या।

तुम जा जा मिले रकीबों से कभी शाम ढले कभी छांव तले,
रखते हैं खबर हम दुनिया की निकले जो नहीं घर से तो क्या।

कोई कहता था के आई थी बादे शबा इन गलियों में,
पर अपने घर तो आई नहीं वो निकली बाहर से तो क्या।

तेरे शहर में सारे लोग मुझे कुछ उकता कर के मिलते थे,
वो शहर हमें हंस कर ही मिला कुछ लोग थे पत्थर से तो क्या।

हर जगह हमें सुनने को मिला के BEKAS तो दीवाना है,
हर गाँव में अपना गाँव मिला हम निकल गए दर से तो क्या।

बातें करें

आज फिर दिल ने कहा कि प्यार की बातें करें,
जैसे खिजां में बैठ कर बहार की बातें करें।

यादों के दरिया में डूब जाएं और फिर,
मांझी की कश्ती की पतवार की बातें करें।

आज साकी मेहरबां है करता नहीं हिसाब,
मिलती है मुफ्त तो फिर क्यूँ उधार की बातें करें।

अब खाक भी बिखर गई आँधियों में वक़्त कि,
जिसको जले बरसों हुए उस घर बार की बातें करें।

हर बार रुसवा हम हुए कभी इस तरह कभी उस तरह,
जिस बार तूने बात की उस बार की बातें करें।

इस जहाँ में है कहाँ कोई तन्हाई का चारागर,
बैठें हम इस पार और उस पार की बातें करें।

दिल कि बात करेंगे तो बढ़ने लगेगा दर्द,
बेहतर है कि हम तेरे रुखसार की बातें करें।

BEKAS के घर में थी और भी चीज़ें कई,
हर बार क्यूँ हम एक ही दीवार की बातें करें।

Sunday, July 27, 2008

मैं अक्सर सोचता हूँ, कि भगवान्, इश्वर, खुदा या यीशु, चाहे जो भी नाम हो उसका, वो समाजवादी है या पूंजीवादी. यहाँ तक कि कभी कभी ये सोचने कि हिम्मत, जिसे मेरे कई मित्र जुर्रत कहेंगे,कि वो है भी या नहीं, वो भी कर लेता हूँ, पर क्यों? मैं ऐसा सोचता क्यों हूँ? मैं ऐसा इसलिए सोचता हूँ कि मेरा घर, मेरा गाँव, मेरे भाई, मेरे पिताजी, मेरी माँ, वो सब या तो मुझे छोड़ देंगे या फिर मैं उन्हें छोड़ दूंगा? क्यूँ हम हमेशा साथ नहीं रह पाएंगे, तो फिर उस ने हमें अलग होने के लिए मिलाया ही क्यूँ था? क्या मेरी गाय, जो मुझे बहुत प्रिय है, अगर बरसात नहीं हुई तो मुझे बेचनी पड़ेगी, क्यों? क्यों में अकाल के बरस में चारा नहीं खरीद पाऊंगा, दुसरे पड़ोसियों कि तरह, क्यूँ ये ऊपर वाला इतना पूंजीवादी हो गया? नहीं ये तो प्रकृति का नियम है, अगर मैं मेरे परिवार को छोड़ कर चला गया, तो ये उन कर्मों का फल है जो उन्होंने और मैंने जाने अनजाने में किये थे! मैंने तो नहीं किये, आप कहते हैं न कि हम तो साधन मात्र हैं कर्ता तो मात्र वो ही है, तो मेरे द्बारा उसने ऐसे कर्म क्यूँ करवाए जिनका फल आज या कल मुझे या मेरे परिवार को अवश्य मिलेगा, लेकिन उसे क्यों नहीं मिलेगा जो कर्ता है? वो अपने सत्कर्म या दुष्कर्म जो भी हो, क्या समान रूप से सबमें बांटता है, अच्छा तो वह समाजवादी है. लेकिन फिर वह समाज में ये सब क्यूँ करता है जिससे सबकी आत्मा प्रताडित हो रही है, अगर उसके पास आत्मा है तो वो भी दुखती होगी, फिर ऐसा क्यों? नहीं कर्म तो मनुष्य ही करता है, वो तो सिर्फ शक्ति और प्रेरणा देता है, क्यों देता है ऐसी शक्ति और ऐसी प्रेरणा? नहीं वो तो सिर्फ देखता है कि कौन क्या कर रहा है, अर्थात वो किसी को नियंत्रित नहीं कर सकता, अर्थात वो अराजकता वादी है, ऐसे अराजक प्रभु को मानूं किस लिए, अक्सर मैं अकेले में यही सोचता हूँ.

हमारे ख्वाब सरीखे थे.

हम क्यूँ नहीं मिल सके,
ये उसका सवाल था,
हमारे खयालात एक थे,
हमारे हालात एक थे,
फिर भी हम क्यूँ नहीं मिल सके,

मेरा जवाब था क्यूंकि,

तुझे शौक था तनहा रहने का, मुझे आदत थी वीराने की,
आग से मुझे मुहब्बत थी, तेरी हसरत थी खुद को जलाने की ,

हम इसी लिए नहीं मिले,
क्यूंकि हमारे,
हमारे खयालात एक थे,
हमारे हालात एक थे।

खयालात तेरे थे ज़ख्मी और हालात मेरे भी फीके थे,
हम दोनों मिल न सके अपने जो ख्वाब थे एक सरीखे थे,

हमारे खयालात एक थे,
हमारे हालात एक थे,
इसी लिए हम मिल न सके..........

Saturday, July 26, 2008

वो कल मुझसे कह कर गया कि तुम

मेरी परवाह करती हो,
मेरी चाह करती हो,

रहमत तेरी है ,
किस्मत मेरी है,

कि तुम मेरी चाह करती हो,
मेरी परवाह करती हो,

बरसो पहले,
मेले में अकेले में,
हम भी तुझे याद करते थे,
दिल में घर बनाते थे,
उसमे तुझे बुलाते थे,
और तुम आते थे,

तब में औरों से कहता था,
की,
तुम, मेरी चाह करते थे,
मेरी परवाह करते थे,

अब तुम शीशे के महल में रहते हो,
और खुद को तनहा कहते हो,
अब ये दिल रोता है,
घर भी खाली है,
क्यूंकि,
तुमने बस्ती कहीं दूर बसाली है,

और औरों से कहते हो कि ,

मेरी चाह करते हो,
मेरी परवाह करते हो,

ये रहमत तेरी है,
और किस्मत मेरी है ,

कि तुम मेरी चाह करते हो,
मेरी परवाह करते हो........

Thursday, July 17, 2008

अक्सर राहों में मिलता है पर बात करे तो क्या कहना,
तन्हाई में वो बेकस को जो याद करे तो क्या कहना

हम तो उसको बतला ना सके आलम अपनी गमख्वारी का,
वो भी हमारी उल्फत में गर आह भरे तो क्या कहना,

लोगों ने बहुत सताया है उसको पत्थरदिल कह कह कर
रस्मों से बगावत आज अगर वो कर गुजरे तो क्या कहना,

रहता है वफ़ा के पर्दों में ढककर के अपनी ज़फाओं को,
वो मुझपे बेवफा होने का इल्जाम धरे तो क्या कहना,

कल जो था वो आज नहीं जो आज है वो कल जायेगा,
BEKAS को भी मरना है, घुट घुट के मरे तो क्या कहना..............