Sunday, July 27, 2008

मैं अक्सर सोचता हूँ, कि भगवान्, इश्वर, खुदा या यीशु, चाहे जो भी नाम हो उसका, वो समाजवादी है या पूंजीवादी. यहाँ तक कि कभी कभी ये सोचने कि हिम्मत, जिसे मेरे कई मित्र जुर्रत कहेंगे,कि वो है भी या नहीं, वो भी कर लेता हूँ, पर क्यों? मैं ऐसा सोचता क्यों हूँ? मैं ऐसा इसलिए सोचता हूँ कि मेरा घर, मेरा गाँव, मेरे भाई, मेरे पिताजी, मेरी माँ, वो सब या तो मुझे छोड़ देंगे या फिर मैं उन्हें छोड़ दूंगा? क्यूँ हम हमेशा साथ नहीं रह पाएंगे, तो फिर उस ने हमें अलग होने के लिए मिलाया ही क्यूँ था? क्या मेरी गाय, जो मुझे बहुत प्रिय है, अगर बरसात नहीं हुई तो मुझे बेचनी पड़ेगी, क्यों? क्यों में अकाल के बरस में चारा नहीं खरीद पाऊंगा, दुसरे पड़ोसियों कि तरह, क्यूँ ये ऊपर वाला इतना पूंजीवादी हो गया? नहीं ये तो प्रकृति का नियम है, अगर मैं मेरे परिवार को छोड़ कर चला गया, तो ये उन कर्मों का फल है जो उन्होंने और मैंने जाने अनजाने में किये थे! मैंने तो नहीं किये, आप कहते हैं न कि हम तो साधन मात्र हैं कर्ता तो मात्र वो ही है, तो मेरे द्बारा उसने ऐसे कर्म क्यूँ करवाए जिनका फल आज या कल मुझे या मेरे परिवार को अवश्य मिलेगा, लेकिन उसे क्यों नहीं मिलेगा जो कर्ता है? वो अपने सत्कर्म या दुष्कर्म जो भी हो, क्या समान रूप से सबमें बांटता है, अच्छा तो वह समाजवादी है. लेकिन फिर वह समाज में ये सब क्यूँ करता है जिससे सबकी आत्मा प्रताडित हो रही है, अगर उसके पास आत्मा है तो वो भी दुखती होगी, फिर ऐसा क्यों? नहीं कर्म तो मनुष्य ही करता है, वो तो सिर्फ शक्ति और प्रेरणा देता है, क्यों देता है ऐसी शक्ति और ऐसी प्रेरणा? नहीं वो तो सिर्फ देखता है कि कौन क्या कर रहा है, अर्थात वो किसी को नियंत्रित नहीं कर सकता, अर्थात वो अराजकता वादी है, ऐसे अराजक प्रभु को मानूं किस लिए, अक्सर मैं अकेले में यही सोचता हूँ.

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