जल्लाद के नगमे होते हैं शैय्याद की बातें होती हैं,
अब खिलवत में खामोशी से उफ्ताद की बातें होती हैं.
अब बाद-ऐ-शबाके शोलों में हिम्मत का मुशैदा होता है,
सितमगरों से अब अक्सर फरियाद की बातें होती हैं..
वो निकली वाइज़ के घर से और पंडित के घर चली गई,
हम बादा कशों की महफिल में जेहाद की बातें होती हैं.
बज्म में आके बशीर मिला खबरें दी फकत हशीशीं की,
इस सर पे खुदा और होठो पे, इल्हाद की बातें होती हैं,
उल्फत की रस्मो ने किया है घर को वीरां इस तरहा के,
अब नुक्तादानों में शहर-ऐ-नाशाद की बातें होती हैं.
उकताकर दुनियादारी से कहदी जो मुख्तसर लफ्जों में,
अब तक लोगों में मेरी उस रूदाद की बातें होती हैं.
इस्लाम की बातें करते हैं न कुफ्र के किस्से गाते हैं,
बेकस खौफज़दा दिल में, बुनियाद की बातें होती हैं.
Tuesday, July 29, 2008
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2 comments:
बढिया रचना है।
वो निकली वाइज़ के घर से और पंडित के घर चली गई,
हम बादा कशों की महफिल में जेहाद की बातें होती हैं.
yah to qiyaamat se zyaada kuchh nahiin, alfaaz kam paD rahe hain taareef ko!
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