Monday, November 17, 2008

उम्र भर जलता रहा,
धूप में चलता रहा,
बेवफाओं के साथ भी जो वफ़ा करता रहा,

लोग समझाते रहे,
ख्वाब तड़पाते रहे,
हमसफ़र राह में छोड़ कर जाते रहे,

पर मुसाफिर था अजब,
दीवाना कहते थे सब,
जख्म दुनिया के सहे बंद रख के अपने लब,

उम्र गुजरती रही,
ख्वाहिशें मरती रही,
उसका तमन्ना सिसकती आहें ही भरती रही,

रवायते हावी रही,
हिकारतें हावी रहीं,
उसकी चाहत पर जहाँ की नफरतें हावी रही,

आंधियां चलती रही,
रुतें बदलती रहीं,
लेकिन उस मजार पे शम्मा-ऐ-दिल जलती रही,

उम्र भर की प्यास से,
जाने किस अहसास से,
समेट कर के चंद अपने ख्वाब-ae-दिल उदास से,

एक दिन घर छोड़ कर,
शहर तनहा छोड़ कर,
चली गई रूह-ऐ-बेकस जिस्म-ऐ-फातिर छोड़ कर,

हाँ तेरा शहर छोड़ कर,
वो मुसाफिर चला गया,
जाने किधर चला गया,
जाने किधर चला गया.......................

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