Thursday, December 25, 2008

इतराई हुई कलियों की तरह,
इतराया हुआ सा रहता हूँ,
अलसाया हुआ सा रहता हूँ
मैं तनहा रातों की तरह,
आशिक की बातों की तरह,
भरमाया हुआ सा रहता हूँ,

मैं एक ग़ज़ल का हिस्सा हूँ,
शायर की जुबां से फिसल गया,
मस्जिद की किसी आयत की तरह,
दोहराया हुआ सा लगता हूँ,

घबराया हुआ सा रहता हूँ,
गहनों में सजी दुल्हन के हसीं,
घूंघट में छुपे चेहरे की तरह
शरमाया हुआ सा लगता हूँ,
शरमाया हुआ सा रहता हूँ,

इठलाया हुआ सा रहता हूँ,
नदिया के जवां धारे की तरह,
साहिल की तरह में धारे से,
टकराया हुआ सा रहता हूँ,

यादों के किसी खिलोने से,
मुफलिस के किसी बच्चे की तरह,
बहलाया हुआ सा रहता हूँ,
मन्दिर की किसी मूरत की तरह
ठहराया हुआ सा रहता हूँ,
तरसाया हुआ सा रहता हूँ,
मैकश की तरह साकी के लिए,
आधे की तरह बाकी के लिए,
तड़पायाहुआ सा रहता हूँ,

इंसान हूँ में भगवान् नही,
बेकस मैं अपनी सूरत से
घबराया हुआ सा लगता हूँ,
घबराया हुआ सा रहता हूँ,

Sunday, December 21, 2008

जब न आएगी दीवाने की सदा आज के बाद,
कौन पूछेगा तेरे घर का पता आज के बाद।

कैस पूछेगा असीरी क्या है बतला फ़िर तो,
कौन मानेगा मुहब्बत को खुदा आज के बाद।

मैं न रहूँगा तो गुलों मत खिलना तुम भी,
कौन आयेगा ऐ चमन तू बता आज के बाद।

आँख पुरनम है रहेगी ये सहर तक बस,
फिर न बरसेगी तबस्सुम की घटा आज के बाद।

यूँ तो आयेंगे कई तुझसे मिलने लेकिन,
वो न मानेंगे तेरे दर को खुदा आज के बाद।

माना दिलकश है सफर तनहा रातों का
के न आए इस शब् की सबा आज के बाद।

ग़म है बेकस कि तुझे जाना है फ़िर भी,
तुझको ढूंढेंगी बिना दर की वफ़ा आज के बाद........।

Monday, November 17, 2008

क्या समझना था क्या समझे,

वो मुझ को भी बेवफा समझे,

तेरी आंखों में मैकदा देखा,

तेरी जुल्फों को घटा समझे,

लोगों पर यकीन कर बैठे,

तुम भी मुझे कहाँ समझे,

तू हमें नादान न कहना,

हम मुहब्बत को खुदा समझे,

उम्र ढल गई कदम फिसले,

लोगों ने देखा सब पिया समझे,

निगाहों में बसा है वो इस तरह,

जिसको देखा साक़िया समझे,

जाते हुए उसने मुझसे कहा,

राज़-ऐ-दिल बेकस कहाँ समझे,

उम्र भर जलता रहा,
धूप में चलता रहा,
बेवफाओं के साथ भी जो वफ़ा करता रहा,

लोग समझाते रहे,
ख्वाब तड़पाते रहे,
हमसफ़र राह में छोड़ कर जाते रहे,

पर मुसाफिर था अजब,
दीवाना कहते थे सब,
जख्म दुनिया के सहे बंद रख के अपने लब,

उम्र गुजरती रही,
ख्वाहिशें मरती रही,
उसका तमन्ना सिसकती आहें ही भरती रही,

रवायते हावी रही,
हिकारतें हावी रहीं,
उसकी चाहत पर जहाँ की नफरतें हावी रही,

आंधियां चलती रही,
रुतें बदलती रहीं,
लेकिन उस मजार पे शम्मा-ऐ-दिल जलती रही,

उम्र भर की प्यास से,
जाने किस अहसास से,
समेट कर के चंद अपने ख्वाब-ae-दिल उदास से,

एक दिन घर छोड़ कर,
शहर तनहा छोड़ कर,
चली गई रूह-ऐ-बेकस जिस्म-ऐ-फातिर छोड़ कर,

हाँ तेरा शहर छोड़ कर,
वो मुसाफिर चला गया,
जाने किधर चला गया,
जाने किधर चला गया.......................
देख जरा ये मंजर देख,
आंखों में है समंदर देख।

मुझको बाहर क्या ढूंढें है,
अपने दिल के अन्दर देख।

देख मेरे दिल के टुकड़े फिर,
अपनी जुबां का खंजर देख।

तेरी खातिर बरस रहे हैं,
मेरे घर में पत्थर देख,

अपना गुलशन देख हरा या,
बेकस का जलता घर देख,

Sunday, November 16, 2008

किस्सागरोंसे सुन या सुन मेरी जुबान से,
वो सड़क पर सोया किए था बड़ी शान से,


घर की तलाश में निकल कर मकान से,
मरासिम तोड़ आया था सारे जहानसे,

जिंदगी को ढूँढने निकला तो था मगर,
बेकस हाथ धो गया अपनी ही जान से,

सूरज कि रोशनी से जला था एक बार,
घबराता रहा तमाम उम्र आसमान से,

कहते थे लोग के अजब काफिर था बेफरक
आरती सुनता था मस्जिद की अजान से,

ग़ज़ल कहता था कुछ कमबख्त इस तरह
कि जान ले लेता था अंदाज़-ऐ-बयान से

जिंदगी को ढूँढने गया निकला तो था मगर,
बेकस हाथ धो गया अपनी ही जान से.......................

Thursday, November 13, 2008

सुनो साथी,
मुझे तुमसे,
जरूरी बात करनी है.
सच है कि,
तुम्हारा भी,
मैंने दिल दुखाया है,
मैं अपनी,
खताओं की,
अगर माफी मांग लूँ तो,
मुझे तुम माफ़ मत करना,
सजा देना जो तुम चाहो,
पर मुझको माफ़ करना,
सुना है तुम,
रहमदिल हो,
खताएं बख्श देते हो,
पर अब भी,
अगर मेरी,
खताएं भूल बैठे तुम,
तो मैं सुधरूंगा कैसे,
सच कहता हूँ,
तुम मेरी,
बातों पर यकीन करलो,
मैं जाहिल हूँ,
संगदिल हूँ,
अगर इस पत्थर को तुम भी,
इक मूरत बना लोगे,
तो मुझको,
ग़लत सच का,
फर्क मालूम कब होगा,
हाँ सच है,
कि मेरे भी,
सीने में दिल धड़कता है,
अगर बदनाम होने से,
बचा लोगे इस दिल को,
तो मुझे सज़ा कैसे होगी,
तुम जहीन हो,
समझते हो,
अपना भी,
पराया भी,
मेरे दिल की खताओं को,
तुम इक जुर्म समझ लेना,
सजा देना जो तुम चाहो,
अकेला हूँ,
इसलिए तुम,
इस तरहा रूठ मत जाना,
मेरे दिल की
खताओं को,
एक दम भूल मत जाना,
अगर तुम माफ़ कर दोगे,
मेरे दिल की खताओं को,
तुम्ही बोलो,
फिर कैसे,
मैं ख़ुद को माफ़ कर दूँ गा,
ये मुमकिन है,
मैं यूंही,
तुम्हारी जान खाता हूँ,
पराये हो,
मगर फिर भी,
मैं अपना हक़ जताता हूँ,
मुझे तुम माफ़ मत करना,
नहीं तो मैं,
गिर जाऊँगा,
ख़ुद अपनी ही नज़रों से,
गुजारिश है,
सज़ा देना,
मगर तुम सज़ा क्या दोगे,
मैं कहता हूँ,
सज़ा मेरी,
मुझे तूम भूल ही जाना,
इससे अच्छी,
सज़ा कोई,
मुझे मिल ही नही सकती,
शुक्रिया है,
की तुमने,
मेरी ये बात सुनली है,
अब तुम ये मान भी लो,
सच बोलूँ,
मुझे तुमसे,
यही इक बात करनी थी................

Wednesday, November 12, 2008

जोगिया जाती नहीं है प्रीत परवानों की यूँ,
चाहे शम्मा जान लेले उसके दीवानों की यूँ।

चाहे मन्दिर लुट जाए या कि मस्जिद जल जाए,
आबरू मिटती नही है मेरे मैखानों की यूँ।

साकिया तू छोड़ दे बाजू भले ही हाँ मगर,
आदत नही है छोड़ने की देख पैमानों की यूँ।

ज़माने भर में नाम मशहूर कर देती है शराब,
और भी बढ़ा देती है इज्जत इंसानों की यूँ।

भीड़ में तन्हाई देकर भेजता है मैकदे,
जान ले लेता है बेकस प्यार इंसानों की यूँ.
वो ख़त के पुर्जे जला दिए,
वो फूल रेत में दबा दिए,

मुझे ज़माना भूल गया,
मैंने भी जमाने भुला दिए,

आँखों की गुस्ताखी ने,
ख़्वाबों के दीपक बुझा दिए,

कुछ लोगों ने छोटी सी,
बातों के फ़साने बना दिए,

कुछ लोगों ने राज़ गजब के,
दिल ही दिल में दबा दिए,

हमने उनका दर्द ले लिया,
रंज हमारे छुपा दिए,

जिनकी खातिर बेकस ने,
गिन कर बरसों बिता दिए,

आज उन्होंने बेकस की,
लाश पे चाकू चला दिए।

Sunday, August 24, 2008

यूँ ज़हर उड़ाना ठीक नहीं, यूँ खून बहाना ठीक नहीं,
घर आंगन में यूँ मज़हब की दीवार उठाना ठीक नहीं,

ऐ खुदा मुझे बतला दे के मैं तुझको कहाँ तलाश करुँ,
इसकी मस्जिद साफ़ नहीं उसका बुतखाना ठीक नहीं।

यहाँ मौत के फतवे रहते हैं वहाँ धर्म के चाकू चलते हैं,
घर में ही छुप कर रहना बाहर का ज़माना ठीक नहीं।

जाकर फूंको उन महलों को हैवान जहाँ पर रहते हैं,
ये घर मुफलिस इंसानों का इसको तो जलाना ठीक नहीं।

वो मौत के सौदागर हैं सब ये खौफ के सब व्यापारी हैं,
पंडितजी भी पाक नहीं और खान-ऐ-खाना ठीक नहीं।

तुझको भी हो जो नाज़ तो सुन ले सच साकी इस महफिल का,
नफरत की मदिरा बिकती है तेरा मयखाना ठीक नहीं।

उनको भी इल्म है ज़रा ज़रा, लेकिन वो भी समझाते हैं,
ये बातें सच्ची हैं बेकस पर जुबां पे लाना ठीक नहीं।

Friday, August 8, 2008

इस शहर में कलियों से लहू टपकता देखकर,
डर गया मैं अमन को घुट घुट के मरता देखकर,
और जिंदा लाशों के ख़्वाबों को जलता देख कर,
जाता हूँ मालिक अब तुम्हारी रहनुमाई देख ली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।

स्याह रातों में गमजदा नाचती वो औरतें,
कौडियों के मोल बिकती हुई सैकड़ों गैरतें,
और हैवानों के हाथों बिखरती सी जीनतें,
वो गलियां जहाँ दिए घुँघरू सुनाई, देखली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।


भूख से गिरते हुए और प्यास से मरते हुए,
कंकाल से वो जिस्म दम आखिरी भरते हुए,
डरते हुए जान से और मौत को तरसते हुए,
उन जिस्मों से होती हुई जां की विदाई देखली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।

उन लक्ष्मीपुत्रों के घर रहती हैं सदा दीवालियाँ,
और साकी के लिए हैं मोतियों की थालियाँ,
पर हम गरीबों के लिए हर रोज़ मिलती गालियाँ,
उन श्वेत चेहरों पर पुती काली सियाही देख ली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।

उजले लिबासों वाले वो सेठ और वो शाहजी,
कोठों में छुप गए जब रात कि नौबत बजी,
और फिर नाचीं हैं कुछ लाशें गहनों में सजी,
उन पर्दानशीं चेहरों कि मैंने बेहयाई देखली।
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।

इन महल वालों पे मैं पत्थर उठा सकता नही,
तेरी तरह खून की नदियाँ बहा सकता नही,
और मजहब के लिए खंज़र चला सकता नही,
बात ज़ब दम की चली अपनी कलाई देख ली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।



सुन नही सकता हूँ में पंडित की झूठी आरती,
और वो अजाने मुल्ला तुझको ही है पुकारती,
या के ईशा के जनों की प्रार्थना दिल हारती,
मैंने अब तक तुझको सुन, दे दे दुहाई देखली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।



दिखता है जिसमे अक्स-ऐ-रब मैं वो शीशा तोड़ दूँ,
या के दीवारों से सर टकरा के अपना फोड़ दूँ,
दिल चाहता है आज मैं ख़ुद को तड़पता छोड़ दूँ,
उम्र भर कर के मुकद्दर से लडाई देख ली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।



आ गई गर हाथ में तलवार तो फिर देखना,
कट के गिरेगा किस तरह तू मेरा सिर देखना,
और बुलंद होता हुआ जिस्म-ऐ-फातिर देखना,
मैंने तो मेरी जान से सहकर जुदाई देखली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।



मैं चाहता हूँ आज जहन्नुम और जन्नत फूँक दू,
इक बार मेरा दिल अगर दे दे इजाज़त फूँक दूँ,
मुझ पर तेरी जितनी है सारी इनायत फूँक दूँ,
आग इस दुनिया में है किसने लगाई देखली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली.

मेरा ख्वाब था कि मैं कभी दिन के उजाले देखता,
सूरज की किरणों कि चादर सर पे डाले देखता,
बैठता मैं छाँव में फिर पांवों के छाले देखता,
बेकस ने तो सिर्फ अपनी शिकस्तापाई देखली
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।

Sunday, August 3, 2008

इक शाम चरागों को बुझाता मिलूँगा,
मिलूँगा पर उजालों से घबराता मिलूँगा।

दीवार-ओ-दर मुझे नसीब न हुए और,
मैं तस्वीर बनके दीवार सजाता मिलूँगा।

जलने से मुझे मिलता है सुकून बेहिसाब,
इक रोज़ ख़ुद के घर को जलाता मिलूँगा।

जलता था मैं तो बरसा नही इक बूँद भी बादल,
मैं लेकिन घटाओं को अश्क पिलाता मिलूँगा।

जिसदिन तुझ को छोड़ देगा ज़माना बेपनाह,
मैं तुझको ऐ दोस्त तब भी बुलाता मिलूँगा।

BEKAS की मुहब्बत को समझेगा जब जहाँ,
मैं तब भी मेरे दिल पे तरस खाता मिलूँगा.

Saturday, August 2, 2008

मेरा दिल चाहता है कि वीराना कह दूँ,
मैं इस एक पल को कैसे ज़माना कह दूँ,

सब लोग हँसते हैं पर दिल नही हँसता,
इस जमघट को कैसे दोस्ताना कह्दूं।

माना की तूने मुझे दिया है बहुत कुछ,
पर तू ही बता कैसे खैरात को नजराना कह दूँ।

जानता हूँ के कई लोग ख़ुद को शम्मा कहते हैं,
मेरा जिगर नही की मैं ख़ुद को परवाना कह दूँ।

तू चाहे की मेरे घर को मैं ताजमहल कहूँ,
मैं तो फकीर हूँ तू बता कैसे अमीराना कह दूँ।

मैं तो घर को घर ही कहता रहूँगा सदा,
मुमकिन नही बेकस कि शराबखाना कह दूँ।

बादा कशों की बस्ती में आया जो तेरा नाम गिरे,

हम थाम रहे थे नज़रों से तेरी जुल्फ खुली तो जाम गिरे।

कासिद जो ख़त लेकर आया उसमे थे नाम रकीबों के,

जिन्हें जिन्दादिली का दावा था पढ़ते ही एक कलाम गिरे।

तेरी एक नज़र से पी हमने फिर इतना खुमार चढा,

तू हंस के उठ गई महफिल से बेकस हम नाकाम गिरे।

Friday, August 1, 2008

लो ख़त्म हुआ अफसाना जी,
अब हमको है उठ जाना जी,
ऐ दिल न रो दुनिया के लिए,
दुनिया है मुसाफिरखाना जी.

पर तुम पहले ये बात सुनो,
मेरे हाथ में देके हाथ सुनो,
टूटी साँसों की मेरी,
आखिरी ग़ज़ल सुन जाना जी.

कल लोग मुझे दफना देंगे,
फिर सब अपना रस्ता लेंगे,
इक बार को फूल चढा देना,
फिर कब्र पे तुम ना आना जी.

कल रात तू फिर तनहा होगी,
जल जायेगा तेरा जोगी,
कुछ काम अधूरे हैं मेरे,
वो तुम पूरे कर आना जी.

बेरंग जहाँ उनका होगा,
लुट गया नगर मन का होगा,
मेरे बाबा को तसल्ली देने तुम,
इक बार मेरे घर जाना जी.

परदेश से भाई आएगा,
मुझको ना घर में पायेगा,
हाथ पकड़ के तुम उसका,
मेरी कब्र पे लेके आना जी.

भाभी भी तो रोती होगी,
रो रो आँखें खोती होगी,
अपनी मीठी बातों से,
दिल उसका भी बहलाना जी,

माँ ये सब झूठा जानेगी,
मुझे अब तक जिंदा मानेगी,
इक रोज़ को घर के कामों में,
तुम उसका हाथ बटाना जी,

में उसकी आंख का तारा था,
जां से भी ज्यादा प्यारा था,
मेरी बहन जो राखी ले आए,
तुम अपना हाथ बढ़ाना जी,

मेरे भाई का छोटा बच्चा,
पूछेगा कहाँ गए चच्चा,
तुम प्यार से उसको बतलाना,
लेकिन मत आँख दिखाना जी.


फिर काम रहेगा इक बाकी,
मैखाने में तनहा साकी,
मेरा जाम लिए बैठी होगी,
तुम एक घूँट पी आना जी.

मैं साथ तेरे दिन रात जिया,
जो तूने कहा मैंने वो किया,
तुम मेरा कर्ज चुका देना,
फिर अपना जहाँ बसाना जी.

दिल को कैसे बहलाओगी,
तनहा कब तक जी पाओगी,
किसी और को साथी कर लेना,
हमको ना याद में लाना जी.

रहना ना कभी अकेले में,
जाना हर सावन मेले में,
तुम दुनिया को अपना लेना,
बेकस तो था बेगाना जी.

Wednesday, July 30, 2008

घटा कुछ अलग है बरसात कोई और,
ऐ इश्क तेरे दिखते हैं हालात कोई और.

तू किसी और की परवाह करे है,
जले है तेरी याद में दिन रात कोई और.

पूछे है मेरी तबीअत आ आ के हवाएं,
लगती है मुझे ये तेरी करामात कोई और.

मैंने चाहा था कि अकेले में मिलूँगा,
बसा था तेरी रूह मैं उस रात कोई और.

पूछना तो उनसे सबब बेदिली का था,
आ गए लबों पे सवालात कोई और.

इस बार वफाओं का हिसाब मांगूंगा,
बेकस उनसे हुई जो मुलाक़ात कोई और.
शीशे के घर में पत्थर की बात करता था,
अजीब शख्श था कहर की बात करता था।

थका हुआ था दौर-ऐ-अंजुमन से तो,
अक्सर वो अपने सफ़र की बात करता था।

रातों में उठता था दीवानों की तरह और,
कभी शाम कभी सहर की बात करता था।

देखा करता था अपने हाथों की लकीरें,
अपने उजडे हुए मुकद्दर कि बात करता था।

किसकी बात किया करता था BEKAS,
वो एक बीमार सुखनवर की बात करता था।
कभी कभी इस दिल की कुछ ऐसी भी हालत रहती है,
एक कदम चलने की फिर रुकने की हिदायत रहती है।

तू इस तरहा रोका ना कर मैखाने जाने वालों को,
कि कुछ लोगों को मै की नही साकी की आदत रहती है।

नंगे पांव चले कब तक कोई रेत की जलती चादर पर,
तपती दुपहरी में हम को अब रात की चाहत रहती है।

जिस दिन उनका ये कहना कि शाम को पनघट पर मिलना,
खुदा कसम उस दिन की तो हर बात क़यामत रहती है।

लगता है किसी दिन अब मेरे घर पर भी पत्थर बरसेंगे,,
उनकी खातिर अब अपनी दुनिया से अदावत रहती है।

चुपके चुपके पीते हैं अहल-ऐ-रकीबां से बचके,
अपनी भी हिफाज़त रहती है उनकी भी इजाज़त रहती है।

BEKAS के घर का होता है ये आम नज़ारा ऐ लोगों,
हर रोज़ जनाजा उठता है हर शाम को मय्यत रहती है.

Tuesday, July 29, 2008

जल्लाद के नगमे होते हैं शैय्याद की बातें होती हैं,
अब खिलवत में खामोशी से उफ्ताद की बातें होती हैं.

अब बाद-ऐ-शबाके शोलों में हिम्मत का मुशैदा होता है,
सितमगरों से अब अक्सर फरियाद की बातें होती हैं..

वो निकली वाइज़ के घर से और पंडित के घर चली गई,
हम बादा कशों की महफिल में जेहाद की बातें होती हैं.


बज्म में आके बशीर मिला खबरें दी फकत हशीशीं की,
इस सर पे खुदा और होठो पे, इल्हाद की बातें होती हैं,

उल्फत की रस्मो ने किया है घर को वीरां इस तरहा के,
अब नुक्तादानों में शहर-ऐ-नाशाद की बातें होती हैं.

उकताकर दुनियादारी से कहदी जो मुख्तसर लफ्जों में,
अब तक लोगों में मेरी उस रूदाद की बातें होती हैं.

इस्लाम की बातें करते हैं न कुफ्र के किस्से गाते हैं,
बेकस खौफज़दा दिल में, बुनियाद की बातें होती हैं.

Monday, July 28, 2008

घन घोर घटाओं की तरहा गैरों के घर बरसे तो क्या,
तेरी बला से हम बरसों प्यासे प्यासे तरसे तो क्या।

तुम जा जा मिले रकीबों से कभी शाम ढले कभी छांव तले,
रखते हैं खबर हम दुनिया की निकले जो नहीं घर से तो क्या।

कोई कहता था के आई थी बादे शबा इन गलियों में,
पर अपने घर तो आई नहीं वो निकली बाहर से तो क्या।

तेरे शहर में सारे लोग मुझे कुछ उकता कर के मिलते थे,
वो शहर हमें हंस कर ही मिला कुछ लोग थे पत्थर से तो क्या।

हर जगह हमें सुनने को मिला के BEKAS तो दीवाना है,
हर गाँव में अपना गाँव मिला हम निकल गए दर से तो क्या।

बातें करें

आज फिर दिल ने कहा कि प्यार की बातें करें,
जैसे खिजां में बैठ कर बहार की बातें करें।

यादों के दरिया में डूब जाएं और फिर,
मांझी की कश्ती की पतवार की बातें करें।

आज साकी मेहरबां है करता नहीं हिसाब,
मिलती है मुफ्त तो फिर क्यूँ उधार की बातें करें।

अब खाक भी बिखर गई आँधियों में वक़्त कि,
जिसको जले बरसों हुए उस घर बार की बातें करें।

हर बार रुसवा हम हुए कभी इस तरह कभी उस तरह,
जिस बार तूने बात की उस बार की बातें करें।

इस जहाँ में है कहाँ कोई तन्हाई का चारागर,
बैठें हम इस पार और उस पार की बातें करें।

दिल कि बात करेंगे तो बढ़ने लगेगा दर्द,
बेहतर है कि हम तेरे रुखसार की बातें करें।

BEKAS के घर में थी और भी चीज़ें कई,
हर बार क्यूँ हम एक ही दीवार की बातें करें।

Sunday, July 27, 2008

मैं अक्सर सोचता हूँ, कि भगवान्, इश्वर, खुदा या यीशु, चाहे जो भी नाम हो उसका, वो समाजवादी है या पूंजीवादी. यहाँ तक कि कभी कभी ये सोचने कि हिम्मत, जिसे मेरे कई मित्र जुर्रत कहेंगे,कि वो है भी या नहीं, वो भी कर लेता हूँ, पर क्यों? मैं ऐसा सोचता क्यों हूँ? मैं ऐसा इसलिए सोचता हूँ कि मेरा घर, मेरा गाँव, मेरे भाई, मेरे पिताजी, मेरी माँ, वो सब या तो मुझे छोड़ देंगे या फिर मैं उन्हें छोड़ दूंगा? क्यूँ हम हमेशा साथ नहीं रह पाएंगे, तो फिर उस ने हमें अलग होने के लिए मिलाया ही क्यूँ था? क्या मेरी गाय, जो मुझे बहुत प्रिय है, अगर बरसात नहीं हुई तो मुझे बेचनी पड़ेगी, क्यों? क्यों में अकाल के बरस में चारा नहीं खरीद पाऊंगा, दुसरे पड़ोसियों कि तरह, क्यूँ ये ऊपर वाला इतना पूंजीवादी हो गया? नहीं ये तो प्रकृति का नियम है, अगर मैं मेरे परिवार को छोड़ कर चला गया, तो ये उन कर्मों का फल है जो उन्होंने और मैंने जाने अनजाने में किये थे! मैंने तो नहीं किये, आप कहते हैं न कि हम तो साधन मात्र हैं कर्ता तो मात्र वो ही है, तो मेरे द्बारा उसने ऐसे कर्म क्यूँ करवाए जिनका फल आज या कल मुझे या मेरे परिवार को अवश्य मिलेगा, लेकिन उसे क्यों नहीं मिलेगा जो कर्ता है? वो अपने सत्कर्म या दुष्कर्म जो भी हो, क्या समान रूप से सबमें बांटता है, अच्छा तो वह समाजवादी है. लेकिन फिर वह समाज में ये सब क्यूँ करता है जिससे सबकी आत्मा प्रताडित हो रही है, अगर उसके पास आत्मा है तो वो भी दुखती होगी, फिर ऐसा क्यों? नहीं कर्म तो मनुष्य ही करता है, वो तो सिर्फ शक्ति और प्रेरणा देता है, क्यों देता है ऐसी शक्ति और ऐसी प्रेरणा? नहीं वो तो सिर्फ देखता है कि कौन क्या कर रहा है, अर्थात वो किसी को नियंत्रित नहीं कर सकता, अर्थात वो अराजकता वादी है, ऐसे अराजक प्रभु को मानूं किस लिए, अक्सर मैं अकेले में यही सोचता हूँ.

हमारे ख्वाब सरीखे थे.

हम क्यूँ नहीं मिल सके,
ये उसका सवाल था,
हमारे खयालात एक थे,
हमारे हालात एक थे,
फिर भी हम क्यूँ नहीं मिल सके,

मेरा जवाब था क्यूंकि,

तुझे शौक था तनहा रहने का, मुझे आदत थी वीराने की,
आग से मुझे मुहब्बत थी, तेरी हसरत थी खुद को जलाने की ,

हम इसी लिए नहीं मिले,
क्यूंकि हमारे,
हमारे खयालात एक थे,
हमारे हालात एक थे।

खयालात तेरे थे ज़ख्मी और हालात मेरे भी फीके थे,
हम दोनों मिल न सके अपने जो ख्वाब थे एक सरीखे थे,

हमारे खयालात एक थे,
हमारे हालात एक थे,
इसी लिए हम मिल न सके..........

Saturday, July 26, 2008

वो कल मुझसे कह कर गया कि तुम

मेरी परवाह करती हो,
मेरी चाह करती हो,

रहमत तेरी है ,
किस्मत मेरी है,

कि तुम मेरी चाह करती हो,
मेरी परवाह करती हो,

बरसो पहले,
मेले में अकेले में,
हम भी तुझे याद करते थे,
दिल में घर बनाते थे,
उसमे तुझे बुलाते थे,
और तुम आते थे,

तब में औरों से कहता था,
की,
तुम, मेरी चाह करते थे,
मेरी परवाह करते थे,

अब तुम शीशे के महल में रहते हो,
और खुद को तनहा कहते हो,
अब ये दिल रोता है,
घर भी खाली है,
क्यूंकि,
तुमने बस्ती कहीं दूर बसाली है,

और औरों से कहते हो कि ,

मेरी चाह करते हो,
मेरी परवाह करते हो,

ये रहमत तेरी है,
और किस्मत मेरी है ,

कि तुम मेरी चाह करते हो,
मेरी परवाह करते हो........

Thursday, July 17, 2008

अक्सर राहों में मिलता है पर बात करे तो क्या कहना,
तन्हाई में वो बेकस को जो याद करे तो क्या कहना

हम तो उसको बतला ना सके आलम अपनी गमख्वारी का,
वो भी हमारी उल्फत में गर आह भरे तो क्या कहना,

लोगों ने बहुत सताया है उसको पत्थरदिल कह कह कर
रस्मों से बगावत आज अगर वो कर गुजरे तो क्या कहना,

रहता है वफ़ा के पर्दों में ढककर के अपनी ज़फाओं को,
वो मुझपे बेवफा होने का इल्जाम धरे तो क्या कहना,

कल जो था वो आज नहीं जो आज है वो कल जायेगा,
BEKAS को भी मरना है, घुट घुट के मरे तो क्या कहना..............